यह एक सर्वविदित तथ्य है कि विजय हमें गर्व से भर देती है और पराजय हमें आँखें नीची करनें के लिये बाध्य कर देती है | इसीलिये तो योगिराज विराटेश्वर नें गीता में फलाफल से मुक्त रहकर निष्काम कर्म क्षेत्र में सक्रिय रहनें के लिये पुकार लगायी थी | हम चाहेंगें कि कर्म निष्ठ जन प्रतिनिधि जो राजनीति को मानव सेवा का सबसे प्रबल माध्यम मानते हैं अपनी पराजय को भी एक सुअवसर के रूप में लें जिसे वे अपनें आत्म संस्कारीकरण के रूप में परिवर्तित कर सकते हैं | हम सब बार बार मानव सेवा , जान कल्याण ,पीड़ा हरण और गरीबी उन्मूलन की बात कहते और सुनते रहते हैं | मुझे लगता है कि ' सेवा ' शब्द को कुछ अधिक व्याख्यायित करनें की आवश्यकता है | अंग्रेजी का Service शब्द सेवा के लिये ही प्रयुक्त होता है | और इस प्रकार हर सरकारी नौकर जनतन्त्र में जनता का सेवक ही होता है | निजी व्यापारों में लगे हुये सेवक कुछ ख़ास व्यक्ति समूहों की सेवा के लिये होते हैं | जब राजाओं का राज्य था और शासन का अधिकार जन्म से मिलता था तब राज्य के सेवक मुख्यतः राजा के विलास सुख और गौरव को बढ़ानें में लगे रहते थे | इतिहास की विस्मृति की परतों में छिपी इन विगत धारणाओं को सदैव के लिये भूल जानें का समय आ गया है | भारत में तो अब कहीं राजे -महाराजे हैं ही नहीं और नेपाल का हिन्दू सम्राट भी सैकड़ों वर्ष के बाद सिंहासन छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया है | इन बदली हुयी परिस्थितियों में चुने हुये जन प्रतिनिधियों को अपनें मन में राजा ,नवाब या शासक का भाव पनपने ही नहीं देना चाहिये | भारत की जनता नें अपनी स्वेच्छा से अपना संविधान अपनें चुने हुये प्रतिनिधियों द्वारा बनाया है | उस संविधान में जनतान्त्रिक प्रक्रिया से चुने हुये प्रतिनिधियों को कुछ अधिकार ,कुछ सुविधायें और ढेर सारे कर्तव्य निर्धारित किये गये हैं | बदलते समय के साथ उनकी दी हुयी सुविधाओं में भी चुने हुये प्रतिनिधियों की भी सम्मति लेकर बदलाव होते रहते हैं | ' माटी ' यह मानती है कि संसद और विधान सभाओं में जानें वाले जनप्रतिनिधियों को जितनी सुविधायें मिल रही हैं वे एक सुखभरा जीवन जीनें के लिये पर्याप्त हैं यह ठीक है कि वे अम्बानी ,लक्ष्मी मित्तल या अजीज प्रेमजी का जीवन स्तर नहीं पा सकते | पर उन्हें जो जीवन जीनें का सुअवसर मिल रहा है वह भारत की 85 -90 प्रतिशत जनता से कहीं अधिक सुनहरा और मनमोहक है | जन सेवा का अर्थ यह है कि जनता नें जो सुविधायें उन्हें दी हैं वे उनसे सन्तुष्ट रहें और यदि बदलते हुये समय में अधिक की आवश्यकता हो तो जनता से अनुरोध कर और अधिक की प्राप्ति करें | पर यदि वो अनुचित मार्ग से रिश्वतखोरी ,कमीशन ,हेराफेरी , हवाला , नियम -व्यतिक्रम ,चोर बाजारी या विदेशी मुद्रा जालसाजी में फंसकर और अधिक सुविधायें अपनें परिवार के लिये जुटाते हैं तो उन्हें ' माटी ' हेय द्रष्टि से देखेगी | ऐसे व्यक्ति सच्चे अर्थों में भारत की सन्तान ही नहीं हैं | न तो उन्हें गीता का ज्ञान है ,न सूफी परम्परा का और न गांधी नेहरू दर्शन का | वे तो सिर्फ चौपड़ बिछाना जानते हैं और राजनीतिक सट्टेबाज के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं | यह ठीक है कि सत्ता में आयी राजनीतिक पार्टी सेवा के क्षेत्र में कुछ बड़ा काम कर सकती है | पर सत्ता से बाहर रहकर भी सैकड़ों सांसद इसीलिये चुप बैठे रहें कि वे सत्ता में नहीं हैं और इसलिये निष्क्रिय रहेंगें ऐसा सोचना भी आत्म घातक ही है | प्रत्येक सांसद को काफी बड़ी धनराशि अपनें क्षेत्र के विकास के लिये प्रतिवर्ष मिलती है | उसका सदुपयोग तो उन्हें करना ही चाहिये पर अपनें क्षेत्र में अहंकार छोड़कर हर गाँव या कस्बे की दुख -सुख की बातों में भाग लेकर जहां तक संम्भव हो अपनी व्यक्तिगत उपस्थित दर्ज करनी चाहिये | एक अमिट सत्य जो किसी युग काल में परिवर्तित नहीं होता उसे प्रत्येक चुने हुये जनप्रतिनिधि को अपनें मन में स्थिर रूप से टिकाना होगा | कुछ भी अपरिवर्तनशील नहीं है | शिखर पर बैठा व्यक्ति अनमनें क्षणों में एक डग की भूल से लुढ़क कर घाटी में पहुंच कर मृत प्राय हो जाता है | और फिर भारतीय परम्परा के अनुसार यमराज का फन्दा तो निरन्तर अन्तरिक्ष में लहराता ही रहता है और कब किसके गले में पड़ जाय इसका पूर्व अन्दाज भी नहीं लगाया जा सकता | वासनाओं का संयमन करना ही जनप्रतिनिधि होने का सबसे सबलतम स्वरूप है | पाखण्ड के आवरण में गेरुआ वस्त्र पहनकर स्वच्छंद यौनाचार जितना कुत्सित होता है उससे अधिक कुत्सित होता है घी चुपड़ी रोटी ,बांसमती पुलाव ,भरे पेट और मुलायम गद्दों पर सोनें वाले शरीरों की अपार धन संचयन की घिनौनी लिप्सा | अभी तक ' माटी ' के अपनें पैमानें पर अधिसंख्य जन प्रतिनिधि अनुत्तीर्ण होते रहे हैं पर ऐसा लगता है कि माप की सुई अब सकारात्मक चिन्हों की ओर चलायमान हो रही है | हे प्रभु ऐसा ही हो |
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि विजय हमें गर्व से भर देती है