हर ऋतु का एक श्रंगार होता है । वह श्रंगार हमें मोहक लगे या भयावह ऋतु का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्रकृति की गतिमयता अवाध्य रूप से प्रवाहित होती रहती है । ब्रम्हाण्ड में तिल जैसा आकार न पाने वाली धरती पर साँसे लेता हुआ मानव समाज अपने को अनावश्यक महत्व देता रहता है । ब्रम्हांड के अपार विस्तार में हमारी जैसी सहस्त्रों धरतियाँ बनती -बिगड़ती रहती हैं । हम अमरीका के चुनाव ,यूरोजोंन की आर्थिक विफलता और इस्लामी देशों की मजहबी कट्टरता को लेकर न जाने कितने वाद -विवाद खड़े करते रहते हैं। साहित्य की कौन सी विचारधारा, दर्शन की कौन सी चिन्तन प्रणाली ,संगीत की कौन सी रागनी ,शिल्प और हस्तकला की कौन सी विधा सार्थक या निरर्थक है । हम इस पर वहस करके अपने जीवन का सीमित समय समाप्त करते रहते हैं । प्रकृति का चेतन तत्व न जाने किस अद्रश्य में हमारे इन खिलवाडों पर हँसा करता है । पहाड़ झरते रहते हैं ,नदियाँ सूखती रहती हैं ,सागर मरुथल बन जाते हैं ,और मरुथल में सोते फूटते रहते हैं । असमर्थ मानव अपनी तकनीकी और प्रोद्योगकीय की शेखचिल्ल्याँ उड़ाता रहता है । पर प्रकृति की एक थपेड़ उसे असहाय या पंगु कर देती है । कहीं भूचाल है तो कहीं सुनामी ,कहीं प्रलयंकर आँधी है तो कहीं भयावह हिम स्खलन, स्पष्ट है कि हमें जीवन के प्रति एक ऐसा द्रष्टिकोण विकसित करना चाहिये जिसमें सहज तटस्थता हो ,और यह जीवन दर्शन भारत के दार्शनिक चिन्तन की सबसे मूल्यवान धरोहर है जो हम भारतीयों ने पायी है । यह हमारा बचकाना पन ही है कि हम जीवन सत्य खोजने के लिए तथा कथित विकसित देशों की अन्धी गुलामी भी कर रहे हैं । चक्रधारी युग पुरुष ने सहस्त्रों वर्ष पहले जब फल से मुक्त सदाशयी कर्म की स्वतंत्रता की बात की थी तो उसमें मानव जीवन का अब तक का सबसे बड़ा सत्य उद्दघाटित किया था। इसी सत्य को आधार बना कर भारत की युवा पीढ़ी को अपने कर्म को उत्कृष्टता की श्रेणी तक निरन्तर गतिमान करना होगा। प्रेरणा के अभाव में आदि कर्म की स्वतंत्रता उत्कृष्टता की ओर न बढ़कर धरातलीय घाटों पर फिसलने लगी है और यहीं से आधुनिक भारत के चारित्रिक पतन का सूत्रपात हो गया है ।
अंतर मंथन